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Showing posts from April, 2008

फिलिस्तीन ज़िंदाबाद!

जहां नन्हीं जानें उठा लें पत्थर   अपना मुस्तकबिल बचाने के लिए।   उम्र 14 के बच्चे उठा लें हथियार   अपनी अम्मी की इज़्ज़त बचाने के लिए।   जहां तेरा मेरा घर सफर हो जाए,   जहां बूढ़े मर जाएँ बच्चों को खिलाने के लिए।   यक़ीन आम हो जाए सुबह भारी मौत पर,   दफ़न शाम हो जाए हर ज़िंदा फ़ौत पर।   अब ठिठुरते हैं वो   सर्दियों में कफ़न सिलवाने के लिए।   सरहदें रोज़ नई बनती हैं,   नाकों पर माएं बच्चों को जनमती हैं।   वो लिख रहे हैं अर्ज़ियों पर अर्ज़ियाँ   अपनी पहचान बताने के लिए।   मजहबों के नाम पर दग़ा दी गई है,   हमारे नुमाइंदों की ज़ुबां सी दी गई है।   अमेरिकी इमारतों में हो रही बैठके,   हमारी हुकूमत मगर उनकी, बनाने के लिए।   क्यों? पूछने पर गोली दाग दी जाती है,   तयशुदा गोलियों से जो पहले ही मर जाएँ,   उनकी ज़िंदा क़ौमों को फिर सज़ा दी जाती है।   हुक्मरान भर रहे हैं बोटियाँ   नींव में अपनी कोठियाँ बनाने के लिए।   अब उनकी आँखों में बग़ावत दिखती है,   इंतज़ामिया कर रही है कोशिशे...