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Showing posts from May, 2008

तक़ाज़ा

वक़्त तक़ाज़ा करता रहा हमेशा,   ना पूछा क्या बीत रही है, बीतने वाले पर।   ना मुल्क रहा, ना मोहब्बत का रिश्ता ज़मीन से,   अब कोई हैरान नहीं होता वतन से जाने वाले पर।   जब दर्द सूख जाए बहने के बाद,   तब कोई ताने देता है, आँसू बहाने वाले पर।   अरज़ियाँ दीजिए या धरना करिए तयशुदा जगह पर,   अब सरकारी फ़रमान आता है, हथियार उठाने वाले पर।   न जाने किसे मिली आज़ादी, ये मज़दूर पूछता है,   धिहाड़ी अब भी वही लड़ी जाती है, ख़ून-पसीना बहाने वाले पर।   हुकूमत के ज़ुल्म की इंतिहा नहीं तो और क्या है,   अब गोली चलाई जाती है, परचा लगाने वाले पर।