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सह अस्तित्व

यह सच में एक त्रासदी है,   जब वास्तविकता के किनारों पर  खड़ा तेज दिमाग   उस दिल के साथ जगह बाँटता है,   जो अब भी सपने देखने का  हौसला रखता है।   यह ठंडी निश्चितताओं  और अनहोनी ख्वाहिशों के बीच   फँसे रहने जैसा है   बेमेल होने पर भी,  संग-संग बँधे हुए,   एक ही सांस में विपरीत  सत्यों की कानाफूसी  फिर भी शायद…  कहीं, किसी दिन,   किसी कम वीरान पल में,   जब दुनिया अपनी पीड़ाओं का भार कुछ हल्का कर पाएगी,   हम दोबारा मिल सकते हैं।   खड़े हो सकते हैं उस जगह पर,  जहाँ समय और पछतावा   धुंधले पड़ जाएँ,   जहाँ तर्क और तड़प के छोड़े निशान   अब दर्द की गूँज में न बसें। उस ख़ास वक़्त में,  शायद मेरा दिमाग  और दिल अब न लड़ेंगे।   शायद मैं सीख लूँगा  कि एक को, दूसरे को   खामोश करने की जरूरत नहीं—   कि मेरे दिल की तमन्ना  और दिमाग की समझ   मिलकर रह सकते हैं,  सह अस्तित्व में।   एक, दूसरे को  ताकत देते हुए    जैसे हम उस  पल  में खड़े हैं,   जिसे हम कभी  असंभव समझते थे।
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Tax The Super Rich

Absolutely, it’s high time we raise our voices to demand a fair, equitable economic system that doesn’t spare the wealthiest while everyone else struggles. When we say "Tax the Super Rich," it's not just a slogan—it's a call to address the staggering economic imbalances that have grown wider year after year, crisis after crisis.  It’s hard to ignore the fact that during the COVID-19 pandemic, while most of us were struggling to make ends meet, billionaires saw their wealth skyrocket. The crisis seemed like a golden opportunity for the wealthiest to double their fortunes, all while working-class families were left reeling from job losses, rising costs, and healthcare debts. How can this be acceptable? Our current policies often protect the super-rich, allowing them to accumulate wealth in unimaginable amounts, while essential services like healthcare, education, and public welfare go underfunded. Instead of investing in programs that benefit everyone, we see tax breaks

The Dark Economy of Human Trafficking: Financial Networks, Inter-Governmental Rivalry, and Technological Challenges

Human trafficking is a global crisis that generates an estimated $150 billion annually, with its roots entrenched in complex financial, political, and technological landscapes. Despite ongoing efforts to combat this human rights violation, trafficking persists due to a range of interconnected challenges, from robust financial networks that sustain traffickers to international rivalries that hinder cooperative responses. The COVID-19 pandemic further accentuated these vulnerabilities, creating a perfect storm for cybercriminals to exploit digital spaces. This article explores the financial aspects of human trafficking, the role of inter-governmental rivalry in impeding progress, and the evolving technological threats that facilitate organized crime. Additionally, insights from the FRS-Sciences Po Conference session "Bridging the Gap: Technologies and Organized Crime" shed light on the growing intersection of technology and trafficking. Financial Aspects of Human Trafficking Hu

Environmental and Economic Crimes in the Asia-Pacific: Unveiling a Growing Threat

At the recent FRS-Sciences Po Conference on “Organized Crime and Geopolitics in the Indo-Pacific,” experts gathered to delve into the interconnected issues driving environmental and economic crimes in the region. As emphasized by key speakers such as Hugo Rodrigues, Louis Marechal, and Sarah Ferguson, the Asia-Pacific region is becoming increasingly vulnerable to environmental crime, with severe implications for local communities, ecosystems, and international regulatory standards. Asia is often seen as a “dumping ground” for waste from wealthier countries, exacerbating social inequality, environmental degradation, and vulnerability to organized criminal networks.  Asia as a Dumping Ground for Environmental Crimes One of the central concerns addressed at the conference was Asia’s role as an international repository for hazardous waste, often arriving illegally from wealthier nations and sometimes facilitated by multinational corporations that exploit legal loopholes or weak enforcement

तक़ाज़ा

वक़्त तक़ाज़ा करता रहा हमेशा,   ना पूछा क्या बीत रही है, बीतने वाले पर।   ना मुल्क रहा, ना मोहब्बत का रिश्ता ज़मीन से,   अब कोई हैरान नहीं होता वतन से जाने वाले पर।   जब दर्द सूख जाए बहने के बाद,   तब कोई ताने देता है, आँसू बहाने वाले पर।   अरज़ियाँ दीजिए या धरना करिए तयशुदा जगह पर,   अब सरकारी फ़रमान आता है, हथियार उठाने वाले पर।   न जाने किसे मिली आज़ादी, ये मज़दूर पूछता है,   धिहाड़ी अब भी वही लड़ी जाती है, ख़ून-पसीना बहाने वाले पर।   हुकूमत के ज़ुल्म की इंतिहा नहीं तो और क्या है,   अब गोली चलाई जाती है, परचा लगाने वाले पर।

फिलिस्तीन ज़िंदाबाद!

जहां नन्हीं जानें उठा लें पत्थर   अपना मुस्तकबिल बचाने के लिए।   उम्र 14 के बच्चे उठा लें हथियार   अपनी अम्मी की इज़्ज़त बचाने के लिए।   जहां तेरा मेरा घर सफर हो जाए,   जहां बूढ़े मर जाएँ बच्चों को खिलाने के लिए।   यक़ीन आम हो जाए सुबह भारी मौत पर,   दफ़न शाम हो जाए हर ज़िंदा फ़ौत पर।   अब ठिठुरते हैं वो   सर्दियों में कफ़न सिलवाने के लिए।   सरहदें रोज़ नई बनती हैं,   नाकों पर माएं बच्चों को जनमती हैं।   वो लिख रहे हैं अर्ज़ियों पर अर्ज़ियाँ   अपनी पहचान बताने के लिए।   मजहबों के नाम पर दग़ा दी गई है,   हमारे नुमाइंदों की ज़ुबां सी दी गई है।   अमेरिकी इमारतों में हो रही बैठके,   हमारी हुकूमत मगर उनकी, बनाने के लिए।   क्यों? पूछने पर गोली दाग दी जाती है,   तयशुदा गोलियों से जो पहले ही मर जाएँ,   उनकी ज़िंदा क़ौमों को फिर सज़ा दी जाती है।   हुक्मरान भर रहे हैं बोटियाँ   नींव में अपनी कोठियाँ बनाने के लिए।   अब उनकी आँखों में बग़ावत दिखती है,   इंतज़ामिया कर रही है कोशिशें   वो आग बुझाने के लिए।   खाली कारतूस ही भर दिए जाएँगे   जो आएगा इस इंकलाब को दबाने के लिए।  

मरम्मत

वो चाहते हैं मरम्मत हो,   हम चाहते हैं उखड़ जाए निज़ाम सारा।   वो चाहते हैं खामोशी रहे बरकरार,   हम चाहते हैं बोले आवाम सारा।   वो चाहते हैं इसी दिहाड़ी पर चले सब,   हम चाहते हैं शोषण मुक्त हो काम सारा।   वो समझौतों से लाद देने की फिराक़ में हैं,   हम विरोध में चाहते हैं चक्का जाम सारा।   वो दो-चार अल्फाज़ लिखकर खुश हैं,   हमारा तो बग़ावती है पैगाम सारा।   हम लड़ेंगे "उनकी" आख़िरी साँस तक,   अब चाहे जो हो अंजाम हमारा।